आजकल एक बात प्रायः कही जाती है कि वर्तमान युग संघर्ष का युग है। राष्ट्रों-राष्ट्रों के मध्य, जातियों-जातियों के मध्य व वर्गों के मध्य में संघर्ष जारी है। इतना ही नहीं, भाई-भाइयों और पति-पत्नी के मध्य भी संघर्ष चल रहा है। इससे भी आगे बढ़कर आजकल तो व्यक्ति के अन्दर अंतर्मन में भी द्वंद्व जारी है। चारों ओर विघटन और टूट-फूट है। कोई भी राष्ट्र या परिवार संघर्ष के इस रोग से अछूता नहीं है। आखिर इतने बड़े विश्वव्यापी बिखराव और तनाव का कारण क्या है? यह हमको जानना ही होगा।
हमारे अनुसार इसका सबसे पहला कारण युग का बदलाव है। युग-परिवर्तन से युगबोध बदला है और उसके बदलने से जीवन-मूल्य या जीवन-दृष्टि बदली है। आज हम मूल्यों के चौराहे पर खड़े हैं। न तो हम अभी तक पुरातन जीवन-मूल्यों को छोड़ ही सके हैं और न नवीन मूल्यों को पूर्णतया आत्मसात् ही कर सके हैं। ऐसी स्थिति में एक प्रमुख सांस्कृतिक संकट उपस्थित हो गया है। नूतन और पुरातन का। यह दृष्टिगत संघर्ष ही आज के हमारे संघर्ष का मूल कारण है। यहाँ पर सनातन मूल्यों से तात्पर्य भारतीय जीवन-दृष्टि से है और नूतन से आशय पाश्चात्य दृष्टि का है। इनमें से अभी हम एक भी दृष्टि को न तो पूर्णतया स्वीकार कर सके हैं और न ही पूर्णतया नकार सके हैं। ये दोनों जीवन-दृष्टियाँ दो विरोधी दिशाओं में जाने वाली सरल रेखाओं की भांति है। इनके अन्तर को समझ लेने से हमारी बात स्पष्ट हो सकती है।
भारतीय या वैदिक सनातन दृष्टि जीवन प्रवाह को चिरंतन और अखण्ड मानती है जबकि आधुनिकतावादी पाश्चात्य दृष्टि जीवन को क्षणों में जीने की अभिलाषी है। इसी प्रकार से भारतीय जीवन-दृष्टि मानव जीवन का मूलोद्देश्य आनन्द या मुक्ति मानती है जबकि पाश्चात्य दृष्टि जीवन का उद्देश्य केवल शारीरिक सुख तक सीमित करती है। भारतीय जीवन दृष्टि विकास के लिए सहयोग को अनिवार्य मानती है। वह प्रत्येक वस्तु अथवा व्यक्ति का एक-दूसरे का विरोधी न मानकर उसका पूरक ही स्वीकार करती है। उन्हें ज्ञान के दो दिशाओं के ध्रुव मानकर उसके विकास में सहायक मानती है। लेकिन पाश्चात्य दृष्टि व्यक्ति-व्यक्ति, वर्ग-वर्ग, जाति-जाति, राष्ट्र-राष्ट्र, पदार्थ और पदार्थ, विचार और विचार तथा व्यवस्था-व्यवस्था के मध्य संघर्ष को जरूरी मानती है। उसके यहाँ तो विकासवादी सिद्धांत की प्रक्रिया ही वाद-विवाद और संवाद की है। वहाँ सहयोग के लिए गुंजाइश नहीं, वहाँ तो केवल सतत संघर्ष की प्रेरणा है। और तो क्या धर्म के विषय में उसकी यही चिंतना है। भारतीय जीवन-दृष्टि यह मानती है कि हमने जो भी कुछ पाया है, वह प्रकृति और परमात्मा के उपहार के रूप में पाया है। अतः हमें उसका धन्यवादी होना चाहिए। इस विषय ने विकासवादी और मार्क्सवादी अथवा आधुनिकतावादियों का यह कथन है कि मनुष्य ने जो कुछ पाया है, वह केवल और केवल उसके संघर्ष का ही प्रतिफल है। कोई ईश्वर या खुदा जैसी वस्तु नहीं है। जो कुछ है सो मनुष्य है। बल्कि उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि खुदा ने इंसान को नहीं बनाया बल्कि आदमी ने ही खुदा को अपनी कल्पना द्वारा बनाया है। ऐसी स्थिति में ऐसे लोग आत्मा-परमात्मा की बात कैसे करेंगे या मानेंगे। कैसे उस पर भरोसा करेंगे? कैसे जीवन में संतोष और अपरिग्रह के नियमों का पालन करेंगे?
एक और बात। भारतीय जीवन दृष्टि मूलतः निवृत्तिवादी अथवा त्यागवादी रही है। उसने त्यागपूर्वक भोग को उचित माना है जबकि पाश्चात्य दृष्टि में त्याग या संयम के लिए कहीं कोई स्थान ही नहीं है। वहाँ पर तो उन्मुक्त उपयोगितावाद या उपभोक्तावाद है। वहाँ पर प्रत्येक वस्तु का भौतिक प्रयोजन है। अतएव सबकुछ संसाधन है और तो क्या स्त्री और पुरुष भी संसाधन मात्र है। ऐसी स्थिति नियम-संयम और सदाचार का क्या मूल्य हो सकता है? जब जीवन का एकमात्र चरम लक्ष्य भोगवाद रह गया हो तो फिर समाज में बलात्कार और अपहरण तथा हिंसाचार ही होगा। संयम और सदाचार कैसे होंगे।
भारतीय जीवन-दृष्टि ने प्रवृत्ति का सर्वथा विरोध नहीं किया है। बल्कि प्रवृत्ति और निवृत्ति का समुचित विधान किया है। मानव-जीवन के चार परम पुरुषार्थ- धर्म-अर्थ-काम और मोक्ष, निर्धारित किए। इनमें से बीच के दो प्रवृत्ति परक हैं जबकि आदि और अन्तिम निवृत्ति मूलक हैं। कहने का तात्पर्य है कि हमारे यहाँ जीवन में भोग और योग (त्याग) का समुचित सांमजस्य रहा है जबकि पश्चिम में उन्मुक्त उपभोगवाद है। हमारी दृष्टि यह रही कि निरन्तर भोग करने से हमारी कामनाएँ तृप्त नहीं होतीं बल्कि अभिलाषाएँ और ज्यादा उमड़ती हैं। जैसा कि मनु महाराज ने कहा कि
न जातु कामनामुपभोगेन शाम्यते कामाः यथा हविषा कृष्णवर्त्मा भूयेवाभिवर्घते॥
अर्थात जिस प्रकार से यज्ञाग्नि में घी की आहुतियाँ डालने से वह और भी प्रचण्ड हो जाती है, इसी प्रकार से कामनाओं की निरन्तर पूर्ति से वह घटती नहीं बल्कि और भी बढ़ती है। यह हम व्यवहार में भी देख सकते हैं। जिसके पास साइकल है, वह स्कूटर, मोटरसाइकल पर चढ़ने की बात सोचता है। जिस पर ये हैं वह कार की बात सोचता है। कार वाला वायुयान की बात सोचता है, इसी प्रकार से जिसके पास हजार रुपए हैं। वह लाखों की इच्छा करता है। लाखों वाला अरबपति और खरबपति बनने का स्वप्न देखता रहता है। कहने का तात्पर्य यही है कि कामनाओं का कहीं अंत ही नहीं है। तभी तो उपनिषद्कार ने कहा कि
न ही वित्तेन तर्पणीयो जनः
कबीरजी ने भी कहा -तन की भूख तनक है आध पाव या सेर। मन की भूख अनन्त है भक्ष जाय सुमेर॥
इसी भोगवादी जीवन-दृष्टि के कारण जीवन में उद्दाम भोग लालसा जगी है। सुख-सामग्री के संचय की अंधी होड़ लग गई है। जब एक ही वस्तु के अनेक ग्राहक हों तो वहाँ संघर्ष तो होगा ही। त्याग और समर्पण अथवा सेवा और सहकार आज बीते युग की बातें हो गई हैं। सब स्वार्थी हो चले हैं। जहाँ भी स्वार्थ टकराता है तो संघर्ष हो जाता है। वह परिवार-क्षेत्र हो गया समाज-क्षेत्र। आय के साधन स्रोत सीमित हैं, लेकिन आवश्यकताएँ असीमित हैं। ऐसी स्थिति में, समाज में खिंचाव और तनाव तथा आपा-धापी है।
बल्कि पति-पत्नी के मध्य स्नेह-सहकार की भावना समाप्त हो गई। आज की पत्नी पहली जैसी समर्पित भारतीय नारी नहीं है। आज वह प्यार की तुलना में अधिकार को अधिक महत्व देती है। संतान भी आज माता-पिता के उपहार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। वह अपने को मिलने वाली सुविधाओं को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानती है। जिस समाज के अन्दर सारे मानवीय मूल्य स्वार्थ की सूली पर टाँग दिए गए हों, उस समाज को जीवित जाग्रत समाज नहीं कहा जा सकता। ऐेसे समाज को तो मृत-समाज ही कहा सकता है।
जिस समाज ने अपने चितरंजन मूल्यों को तिलांजलि देकर संघर्षमूलक पाश्चात्य संस्कृति के मूल्य अपना लिए हों, वह समाज तो आत्मघाती समाज है। आज पश्चिम में रुपया है, पैसा है। सुख-सामग्री है, सबकुछ है, लेकिन शांति नहीं है, क्योंकि वहाँ की जीवन-दृष्टि संघर्षमूलक है। हमारे यहाँ पर पहले चाहे इतने सुख-साधन नहीं थे; क्योंकि हमारी दृष्टि सहयोगमूलक थी। यहाँ पर जाति-पाति में सहयोग, वर्ग-वर्ग में सहयोग, व्यक्ति व्यक्ति में सहयोग तथा पति-पत्नी में सहयोग था। आज सहयोग के स्थान पर अनावश्यक संघर्ष और विरोध आ गया है। योग (त्याग) के स्थान पर उन्मुक्त भोग आ गया है। परमार्थ के स्थान पर नग्न स्वार्थ नाच रहा है। समपर्ण और सेवा तथा स्नेह के स्थान पर अवसरवाद का बोलबाला है। जहाँ पर जीवन-दृष्टि इतनी विषाक्त हो चुकी हो ऐसे समाज में सुख-शांति अथवा समरसता की सार्थक कल्पना नहीं की जा सकती। यदि इस समाज को सुख का सागर बनाना है तो इसमें स्नेह और सहकार के मोती उगाने पड़ेंगे। वेदों के संगठन सूत्र का सिंहावलोकन करना पड़ेगा और उसका आचरण करना पड़ेगा जिनमें सभी मनुष्यों को परस्पर में भाइयों की तरह से रहने का उपदेश दिया गया है। पति-पत्नी में मधुर संलाप की बात कही गई है। भाई-बहन में स्नेह-सूत्र के बंधन का विधान है। महाभारत की मानवीय दृष्टि आत्मनः प्रतिकूलं परेषां न समाचरेत्। हमारे आज के सामजिक या पारिवारिक संघर्षों को शांत करने वाली सुधा सिद्ध हो सकती है।
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