आज सम्पूर्ण विश्व में मानव अशांत, त्रस्त और दुःखी है। यह उल्टी बात देखकर आश्चर्य होता है कि भौतिक उन्नति चरमसीमा पर होते हुए वैज्ञानिक प्रगति से मानव शरीर को सुख-सुविधाओं की प्रचुर सामग्री उपलब्ध है, किन्तु फिर भी मानव अपने को सुखी अनुभव नहीं करता। शांति सब चाहते हैं किन्तु शांति जिसे उपाय से मिल सकती है उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है। सर्वत्र भौतिक साधनों को एकत्रित करने की एक होड़ में दौड़ लग रही है। फिर बताओ शांति कैसे संभव होगी? चिन्तन के क्षण में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि भगवान् की सृष्टि की हर वस्तु त्याग और यज्ञ भावना का आदर्श प्रस्तुत करती हुई भगवान के असीम प्रेम का परिचय दे रही है जबकि मानव का प्रेम अतिभौतिकता में विस्तृत होने के स्थान पर संकुचित हो रहा है। सागर किरणों को कितनी उदारता से जल दे रहा है, किरणें उसे बादलों को दे रही है, बादल उसे पृथ्वी को दे रहे हैं, पृथ्वी नदियों को दे रही है, नदियाँ पुनः समुद्र को दे रही हैं। यह चक्र ही विश्व प्रेम, विश्व जीवन का आधार है। हम अपने पूर्ण पुरुषार्थ से ज्ञान, बल, धन को अर्जित करें, किन्तु इन सभी उपलब्धियों का स्वामी अपने को मानकर परमात्मा को मानते हुए त्यागपूर्वक उपभोग करें तभी संसार की सर्वत्र फैली अशांति, पीड़, कराह वेदना, चीत्कार को समाप्त कर शांति का मधुमय वातावरण लाया जा सकता है। अराति एक-दूसरे के प्रति अदान वृत्ति एवं क्षीण बुद्धि ने तृष्णा को बढ़ा दिया है और हम हाय कंगाली का करुण क्रन्दन कर रहे हैं।
आज संसार की स्थिति इस प्रकार हो गई है कि - आग से शोले उठे ज्यों-ज्यों हवा की मनुष्य की समस्याएँ दूर न होकर विकट होती जा रही हैं। मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा को उक्ति चरितार्थ हो रही है। समस्याओं का समाधान खोजने के लिए मनुष्य अग्रसर हो रहा है, किन्तु वे दूर होना तो दूर बढूती जा रही हैं। इसका मूल कारण है कि केवल प्राकृतिक (भौतिक) उन्नति की ओर ही दृष्टि लगी हुई है आत्मिक उन्नति बिलकुल उपेक्षित है। धन की उन्नति से कोई मनुष्य, समाज या राष्ट्र कभी तृप्त नहीं हुआ। भौतिक उन्नति से परिपूर्ण पाश्चात्य देश विविध समस्याओं से घिरे किंकर्त्तव्य विमूढ़ होकर समाधान का मार्ग ढूँढ रहे हैं। प्रत्येक देश में पारस्परिकप्रतिद्वंद्व के कारण जीवन नारकीय बन चुका है। दिन में चैन और रात्रि में निद्रा गूलक का फूल बन चुकी है।
जितनी अधिक भौतिक सम्पन्नता बढ़ती है उतनी ही अधिक दरिद्रता। सबसे बड़ा दरिद्री कौन? साधु को कहीं से एक पैसा मिल गया। वह सोचने लगा कि यह पैसा किसको दूँ? क्या अब सारे संसार में घूमकर पता लगाना पड़ेगा कि सबसे अधिक जरूरतवाला कौन है। कौन सबसे अधिक असन्तुष्ट है? बिना इसे जाने पैसा किसी को दिया नहीं जा सकता, इसी विचार में मग्न साधु को एक विशाल सेना जाती हुई दिखाई दी। पूछने पर मालूम हुआ कि किसी राज्य का राजा जिसके अधिकार में सात राज्य हैं, आठवें को जीतने के लिए जा रहा है।
साधु ने सोचा कि इससे बड़ा असन्तुष्ट कौन हो सकता है कि जिसका पेट सात राज्यों में नहीं भरा। यह सोचकर उसने वह पैसा राजा की पालकी में फेंक दिया। यह देखकर राजा के क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने पालकी रुकवा दी और साधु से कहा- मूर्ख! तूने यह क्या किया?
साधु ने बड़े धैर्य के साथ उत्तर दिया, मुझे कहीं से यह पैसा मिला था। मैंने सोचा किसकू दूँ। अन्त में निर्णय लिया कि जो सबसे बड़ा असन्तुष्ट है, उसको दूँ। सारे संसार की खाक छान डाली। आज तुम्हें देखकर यह ज्ञात हुआ कि तुमसे बड़ा द्ररिद्री और कोई नहीं होगा? अतः स तु भवति दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला के अनुसार पैसा मैंने तुम्हें दे दिया।
यह सुनकर राजा ने क्रोध में भरकर कहा - तुने मुझे पहचाना नहीं कि मैं कौन हूँ? तूने मुझे दरिद्री मान। तू जानता है नहीं मैं सात राज्यों का राजा हूँ। साधु ने पूछा- अच्छा, राजन आप ही बताओ द्ररिद्री कौन है? राजा बोला- जो जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ है वही द्ररिद्री है। साधु ने सहजभाव से निर्भीकतापूर्वक कहा- तो तुम तो सबसे बड़े कंगाल ही हुए जो अपनी आवश्यकता को पूरा करने के लिए लाखों मनुष्यों का वध करने को विशाल सेना लेकर जा रहे हो। अब तुम ही बताओ तुमसे बड़ा दरिद्री और असन्तुष्ट कौन है? तुम अपनी खुशी के लिए दूसरों की खुशी मिटाने के लिए भाग-दौड़ कर रहे हो।
वास्तविकता यही है आज का मनुष्य अपनी समस्याओं के हल का एकमात्र उपाय पैसा समझ रहा है। सबकी दृष्टि पूँजी पर लगी है। संसार में हर आदमी बड़ा कहलाना चाहता है। अपनी नाक ऊँची करना चाहता है। आज बड़ा आदमी वह समझा जाता है जिसके पास बहुत अधिक पैसा है। पैसे की तृष्णा इस प्रकार बढ़ती जा रही है कि करोड़पति भी अपने को कंगाल समझता है, क्योंकि वह अरबपति नहीं है।
वस्तुतः प्रश्न पेट भरने का नहीं है। पेट तो भरपेट अन्न से भर जाता है, किन्तु तृष्णा का पेट तो सारे संसार की सम्पत्ति एक व्यक्ति को दे दो तब भी नहीं भरता। समस्या तो आध्यात्मिक है। इसलिए पूँजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद कोई भी उसे हल नहीं कर सकता। यदि केवल शरीर से भोगों की समस्या होती तो माता बच्चे के लिए बड़े से बड़ा त्याग करने को उद्यत न रहती। देश, धर्म, जाति के लिए वीर अपने प्राणों की आहुति न देते। शरीर के पीछे इसका अधिष्ठाता आत्मा और प्रकृति के पीछे उसका एक नियन्ता परमात्मा है। इतिहास बताता है जिनसे दुनिया थर्राती थी वह भी मृत्यु के सामने चुपचाप खाली हाथ ही चल दिए। सांसारिक सब ऐश्वर्य तो एक न तो एक छूटना ही। अतः प्रश्न भरने का नहीं, तृष्णा को जीतने का है। तृष्णा को जीतने का एकमात्र उपाय यज्ञमय और त्यागमय जीवन व्यतीत करना है। वेदमार्ग ही उसके लिए एक मार्ग है- तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। मा गृध. कस्य स्विद्धनम्॥ जो व्यक्ति धनी होकर दात नहीं देता उसे आरति- समाज का दुश्मन कहा गया है। व्यक्ति को कमाने का पूर्ण अधिकार है, किन्तु वह अपने धन का उपभोग उतना ही करे जितना उसकी जीवनचर्या के लिए आवश्यक है। शेष धन को समाज की उन्नति और सुख के लिए दान दे दे। केवल धर्म की भावना से प्रेरित होकर ही धन का वितरण त्याग है। राग या यश कामना से प्रेरित होकर धन का वितरण करना ही त्याग नहीं। अदान वृत्ति धनी के वध का कारण बनती है। अकेला भोग करने वाला मानो धन का भोग नहीं करता अपितु पाप का भोग करता है। अतः वेद उपदेश देता है- शतहस्तः समाहर सहस्त्रहस्तः सकिर सौ हाथों से कमा और हजार हाथों से सम्यक् दान कर। इसी यज्ञीय भावना से तृष्णा का पेट भर सकता है।
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परमात्मा की न्याय व्यवस्था पूर्ण है।
Ved Katha Pravachan -80 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
बदलने की मनोवृत्ति आदमी में बदलने की मनोवृत्ति होती है। कोई भी एक रूप रहना नहीं चाहता है। युवक भी सदा युवक नहीं रहता, बूढा होता है। जैसे यौवन का अपना स्वाद है, वैसे ही बुढापे का अपना मजा है, स्वाद है। जिस व्यक्ति ने बुढापे का अनुभव नहीं किया, बुढापे के सुख का अनुभव नहीं किया, वह नहीं जान सकता कि...