आलस्य, प्रमाद, सुस्ती, धनाभाव, उत्तम-पवित्र बुद्धि का न होना, आत्मविश्वाश की दुर्बलतादि कारणों से व्यक्ति अल्प पुरुषार्थ से ही जीवन निर्वाह करता रहता है। ऐसे व्यक्ति की भावना कुंठित हो जाती है, जिससे वह किसी भी कार्यक्षेत्र में एक पग भी आगे नहीं बढ़ पाता। बस अन्त में उसके मुख से एक ही वाक्य प्रस्फुटित होता है, हमें और कुछ नहीं चाहिए हम इतने में ही सन्तुष्ट हैं।
दूसरा प्रश्न- संसार में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो भाग्यवाद के कुचक्र में बुरी तरह उलझे हुए हैं। ये लोग पुरुषार्थ से भाग्यवाद को अतिप्रबल मानते हैं इनकी दृष्टि में जब भाग्योदय होगा उस समय पुरुषार्थ किए बिना ही सर्वदुःखों का अन्त हो जाएगा और धनादि ऐश्वर्य स्वतः ही प्राप्त हो जाएँगे। भाग्य ठीक न होने से चाहे कितना ही प्रयास क्यों न किया जाएँ सब निष्फल हैं, अतः भाग्य की अपेक्षा पुरुषार्थ का कई महत्व नहीं है अर्थात पुरुषार्थ की अपेक्षा भाग्य अधिक बलवान है। यह भाग्य कब ठीक होता है और कब गलत, इसके ठीक करने के उपाय क्या हैं आदि-आदि ऐसे प्रश्नों का वे कोई यथार्थ उत्तर नहीं दे पाते।
उत्तर- यह प्रश्न उन लोगों से जुड़ा है जो पुरुषार्थ की अपेक्षा भाग्यवाद को अति बलवान मानते हैं। फलित ज्योतिष के ऊपर विश्वास रखने वाले लोग प्रायः भाग्यवाद रूपी आतंक के शिकार होते देखे गए हैं। भाग्यवाद की जड़ों को सिञ्चित कर उन्हें पुष्ट करने वाले लोगों की संख्या सिर्फ भारत में ही नहीं विदेशों में भी है। हस्तरेखाओं अथवा मस्तकादि की रेखाओं को देखर उसकी उन्नति या अवनति के बारे में जोरदार भविष्यवाणी की जाती है। भाग्य को मौलिक आधार बनाकर चलाने वाले इसी से अपने उत्कर्ष और अपकर्ष को होना मानते हैं जबकि कुछ उनमें तथ्य कुछ भी नहीं होता। हाँ, इतना तो है, जिन्होंने इसे माना इस पर विश्वास किया इतिहास साक्षी है वे समर्थ शक्तिशाली महापराक्रमी होते हुए भी सफलता के उच्च शिखर से गिरकर पराजय के गड्ढे में जा गिरे, और जिन्होंने इसकी उपेक्षा कर दी इसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया जिन्हें इससे अधिक अपने पर विश्वास था वे लोग आगे बढ़े तो बढ़ते ही रहे और अन्त में सगर्व विजयश्री को प्राप्त किया।
भाग्यवाद के क्रूर शिकंजे में फँसे हुए लोगों से यही कहना है कि इसको तिलाञ्जलि देकर यथासामर्थ्य पुरुषार्थ करते हुए आगे बढ़ें तो निश्चित रूप से सफलता मिलेगी। वेद में कहा है -
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः (यजुर्वेद 4/12)
कर्म करते हुए ही मनुष्य सौ वर्ष पर्यन्त जीने की इच्छा करे। वेद का कितना स्पष्ट आदेश है कि आलसी और निकम्मे कभी भी संसार में सुख प्राप्त नहीं कर सकते। सब प्राणियों तक कर्मशील बने रहने का पावन दिव्य संदेश पहुँचाना हमारा परम कर्तव्य है, क्योंकि यही राष्ट्र और समाज की उन्नति का आधारभूत मौलिक सर्वतन्त्र सिद्धान्त है जिसका ठीक-ठीक पालन करने पर राष्ट्र व समाज को सबल और स्वस्थ बनाया जा सकता है।
तीसरा प्रश्न ः- ईश्वर की सत्ता पर विश्वास रखने वाले (जो ईश्वर को अवतार के रूप में मानकर चलते हैं) भक्तजन कहते हैं- हमारी चिन्ता हमसे अधिक ईश्वर को है हमें आजीविका के विषय में चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं। जो चींटी से लेकर हाथी पर्यन्त सब जीवों का पालन कर रहा है, उसी की प्रेरणा से कोई ना कोई भक्त हमें भी धनादि की सहायता करता रहेगा, पुरुषार्थ करने की क्या आवश्यता है? वह जहाँ किसी अन्तः प्रेरणा देखर हमें धनादि की सहायता करता है, वहाँ देश-काल परिस्थिति के अनुसार अवतार लेकर पापियों को दण्ड देकर सज्जनों की रक्षा भी करता है।
दास मलूका का इस विषय में एक दोहा प्रसिद्ध है-
अजगर करे ना चाकरी पंछी करे न काम।
दास मलूका कह गए सबके दाता राम॥
अकर्मण्यता को बढ़ावा देने वाली इस विचारधारा का जब समाज को अधार बनाकर प्रचार हुआ, प्रायः तभी से उपरोक्त मान्यताओं को और अधिक बल मिला। ईश्वर के प्रति अडिग विश्वास रखते हुए अनन्य भक्तिभाव से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करते हुए सच्चे हृदय से जब किसी ऐसी वस्तु की कामना करते हैं जो वर्तमान में अप्राप्य है किन्तु जिसे सामर्थ्य बढ़ाकर प्राप्त किया जा सकता है तो निःसन्देह ईश्वर हमारी कामनाओं को पूर्ण करता है। परन्तु कब? ऐसा तो है नहीं कि प्रभु माँगने पर इच्छित वस्तु को हमारे हाथों में लाके पकड़ा दे। दर्शनाचार्य- सत्येन्द्र
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वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
वेद कथा - मनुष्य शरीर देव मन्दिर है।
Ved Katha Pravachan -77 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
बदलने की मनोवृत्ति आदमी में बदलने की मनोवृत्ति होती है। कोई भी एक रूप रहना नहीं चाहता है। युवक भी सदा युवक नहीं रहता, बूढा होता है। जैसे यौवन का अपना स्वाद है, वैसे ही बुढापे का अपना मजा है, स्वाद है। जिस व्यक्ति ने बुढापे का अनुभव नहीं किया, बुढापे के सुख का अनुभव नहीं किया, वह नहीं जान सकता कि...