कृपया क्षमा करें का महत्व
अप्रियं यस्य कुर्वीत भूयस्तस्य प्रियं चरेत् जिसके साथ कारणवश कोई अप्रिय आचरण हो जाए, उसके साथ पुनः प्रिय आचरण भी करना चाहिए।
भूल मानव का स्वभाव है और उसमें सुधार मानवीय विवेक है। हम छोटी-छोटी महत्वहीन बातों पर तो अवश्य क्षमा करें जैसे शब्दों का प्रयोग कर केवल औपचारिकता का निर्वाह करते हैं जैसे अज्ञानतावश किसी को थोड़ा-सा धक्का लग जाए या पानी देते समय हाथ हिलाने से गिलास में से कुछ बूँदें कपड़ों पर गिर जाएँ, परन्तु हम कृपया क्षमा करें इस शब्द के अर्थ को गम्भीरतापूर्वक नहीं लेते।
मुझे बचपन की वह घटना याद जब पितामह के पास ग्राम का उन्ही की उम्र का जग्गू चमार आकर दूर ड्योढ़ी पर प्रायः प्रतिदिन ही बैठ जाया करता था। मैंने एक दिन पिताजी के कहे अनुसार उनके जूते दूर रखकर जग्गू को देते हुए कहा- जग्गू इन्हें ठीक कर लाना। उसने अपनी सहज आत्मीयता से जूते लेते हुए सिर हिलाकर अनुमोदन करते हुए कहा - अच्छा राजा भैया! पितामह ये सब देख रहे थे। उन्होंने मुझे बुलाकर डाँटते हुए कहा- जानते हो, जग्गू तुम्हारे पिता की उम्र का है। भविष्य में जग्गू काका कहकर पुकारा करो।
कुछ व्यक्तियों की आदत होती है कि वे सामने तो व्यक्ति की प्रशंसा करते हैं और पीठ पीछे उसकी निंदा करने से नहीं चूकते। उदाहरणार्थ, चार व्यक्ति बैठे सहज ढंग से पारस्परिक वार्ता कर रहे थे। अचानक उनमें से एक व्यक्ति कार्यवश उठकर चला गया। बचे तीन में से एक ने उस गए व्यक्ति की आलोचना प्रारम्भ की। धीरे-धीरे अन्य दो भी समर्थन में अपने विचार व्यक्त करने लगे। आलोचना निन्दा में परिवर्तित हो गई। सोचिए, जो चला गया वह तो सहज स्थिति में गया था। पर आपने अपने मस्तिष्क पर अनावश्यक बोझ डालकर स्वयं का मन भी मलिन किया और आपके दुर्वचनों से उस व्यक्ति का कुछ नहीं बिगड़ा। निंदा की वे समर्थनात्मक आहुतियाँ आपके ही विचारों को तृप्त करती रहीं।
प्रत्यक्षं गुणवादी यः परोक्षे चापि निंदकः ।
स मानवः श्वल्लोके नष्ट लोकपरावरः॥ (महा.शा. 114-12)
जो सामने आकर गुण गाता है और परोक्ष में निन्दा करता है, वह मनुष्य संसार में कुत्ते के समान है। उसके लोक-परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं।
शास्त्रों में चर्चा है कि इहलोक और परलोक की। लोक तो स्पष्ट ही परिलक्षित हो रहा है, पर यह परलोक? संभवतः वर्तमान भारत से यह शब्द उठता जा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में तो यह शब्द प्रायः समाप्त ही हो गया है। कैसा परलोक? कैसा पुर्नजन्म? खाओ, पियो और मौज करो। वर्तमान ही सबकुछ है पर विश्वास करने वाले विक्षिप्त युवकों का समूह तेजी से बढ़ रहा है। इसी अंधी दौड़ में सम्मिलित युवक अगर प्रद्दीप्ते भवने तु कूप खननम् की उक्ति को चरितार्थ करें तो कोई आश्चर्य नहीं। यर्थाथ और भ्रम का अंतर स्पष्ट होने तक पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ न बचेगा।
जब हम श्रोताओं से पूछते हैं कि बताइए, क्या सुनना पसंद करेंगे तो अधिकतर रौब गाँठने के लिए प्रस्थानत्रयी, योग वासिष्ठ, श्रीमद् भागवत या वाल्मीक रामायण का नाम तो लेते हैं, लेकिन व्यवहार में अधिकतर सनातन धर्मावलम्बी अभी तो यही नहीं जानते कि भोजन कैसे करना चाहिए? बैठा कैसे जाता जाता है? चलना कैसे चाहिए? सच पूछा जाए तो अभी तो हमें यहीं नहीं आता कि बात कैसे करनी चाहिए? ज्ञान की सार्थकता आचरण में है। शास्त्र पठन-पाठन से कहीं अधिक आवश्यक है कि हम उसे व्यवहार में लाएँ। गाँधीजी ने कहा था - दो मन ज्ञान से दो तोला आचरण कहीं श्रेष्ठ है।
आप कहेंगे- क्या शास्त्र बोलना भी सिखलाता है? महाभारत के भीषण युद्ध का निर्णयात्मक अंत न देखकर धर्मराज युधिष्ठिर ने अर्जुन के पौरुष को ललकारते हुए कुछ अप्रिय शब्द कह डाले। भावावेश में वे यहाँ तक कह गए कि धनुश्च तत् केशवाय प्रयच्छ तुम अपना धनुष श्रीकृष्ण को दे दो। तुम सारथी बन जाओ। धिक्कार है तुम्हारे गाण्डीव को।
अर्जुन पहले ही प्रतिज्ञा कर चुके थे जो मेरे गाण्डीव के लिए अपशब्द कहेगा, मैं उसका वध कर दूँगा।
अन्यस्मै देहि गाण्डीव मिति मां योऽभिचोदयेत।
भिन्धयामहं तस्य शिर इत्युपांशुव्रततं मम्॥
(महा. कर्ण. 69-9)
अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने पर उतारू अर्जुन ज्येष्ठ भ्राता पर ही तलवार लेकर खड़े हो गए। श्रीकृष्ण ने बीच में आकर अनेक प्रकार से अर्जुन को समझाया। पर अर्जुन अपनी प्रतिज्ञा भंग की दुहाई देते रहे। पार्थ सारथी ने कहा-
त्वमित्यन्न भवंतं हि ब्रूहि पार्थ युधिष्ठिरम्।
त्वमित्युक्तो हि निहतो गुरुर्भवतति भारत। (महाभारत. कर्ण. 69-03)
पार्थ, तुम युधिष्ठर को सर्वदा आप कहते आए हो। आज उन्हें तू कह दो। भारत, यदि किसी गुरुजन को तू कह दिया जाए तो वह साधु पुरुषों की दृष्टि में उसका वध ही हो जाता है।
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वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
अधिकतर दुःख स्वयं की असावधानी से होते हैं।
Ved Katha Pravachan -76 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
बदलने की मनोवृत्ति आदमी में बदलने की मनोवृत्ति होती है। कोई भी एक रूप रहना नहीं चाहता है। युवक भी सदा युवक नहीं रहता, बूढा होता है। जैसे यौवन का अपना स्वाद है, वैसे ही बुढापे का अपना मजा है, स्वाद है। जिस व्यक्ति ने बुढापे का अनुभव नहीं किया, बुढापे के सुख का अनुभव नहीं किया, वह नहीं जान सकता कि...