कृपया क्षमा करें का महत्व
जीवन में तू शब्द के प्रयोग की मीमांसा संभवतः हमारी जिह्वा के नियन्त्रण के सम्बन्ध में अत्यंत विचारणीय दस्तावेज है। जब कृष्ण की बात मानकर अर्जुन ने अपने ज्येष्ठ भ्राता को तू शब्द से सम्बोधित करते हैं, तब उनके सामने दूसरी विकट समस्या उपस्थित हो जाती है। जिस भ्राता को जीवनभर पिता की भाँति पूज्य माना, उनका इस रूप में अपमान कर अर्जुन का हृदय आत्मग्लानि से भर उठा और वे आत्महत्या करने पर उतारू हो गए। उस समय पुनः श्रीकृष्ण ने अभूतपूर्ण धर्मदर्शन हमारे समक्ष प्रतिपादित किया।
ब्रवीहि वाचाद्य गुणानिहात्मन स्तथा हतात्मा भवितासि पार्थ।
तथास्तु कृष्णेत्यभिनन्दय तद्वचो धनंजयः प्राह धनुर्विनाम्य॥
(महा. कर्ण. 70-26)
पार्थ, तुम अपनी ही वाणी द्वारा अपने गुणों का वर्णन करो। ऐसा करने से यह मान लिया जाएगा कि तुमने अपने ही हाथों अपना वध कर लिया है।
यही बात मानसकार ने भी राम-रावण युद्ध के समय भगवान् राम के मुख से कहलाई-
जन जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
समयानुकूल वचनों का प्रयोग न कर पाने वाले व्यक्ति को गूंगा कहने का यही अभिप्राय है- को मूको यः काले प्रियाणी वक्तु न जानाति।
मानव को तो त्रुटियों का पुतला कहा गया है। भूल किससे नहीं होती? देश के सामान्य नागरिक से लगाकर प्रथम नागरिक तक सभी से भूलें होना संभव है पर क्या आज किसी प्रधानमंत्री ने कहा कि मुझसे भूल हुई? क्या किसी अधिकारी ने चपरासी से, बाप ने बेटे से या गुरु ने चेले से उक्त शब्द कहे? हिन्दी भाषा के उपयोग में बहुत कम लाए जाने वाले ये तीन शब्द अत्यंत कठिन हो गए हैं, जबकि इन शब्दों में कुछ ऐसा जादू है कि अगर परिस्थितियाँ विषम बन रही हों और गंभीरतापूर्वक हम इनका उपयोग करें तो प्रतिकूल भी अनुकूल हो जाता है।
कोई एक रेल मंत्री देश में पैदा होकर अपनी भूल को स्वीकार करता है और युग पुरुष बन जाता है (लालबहादुर शास्त्री ) या अपनी गलतियों पर पश्चाताप कर राष्ट्रपिता बन जाता है। एक विचारक ने कितनी उपयोगी बात कही है- यदि आप मालिक हैं तो कभी -कभी आँखों पर पट्टी बाँध लिया करें और नौकर हैं तो कभी-कभी कानों में उँगली दे दिया करें।
अपने पिता की उम्र के चपरासी को घंटों फाइल लिए कड़ा देखकर भी खाली पड़ी कुर्सी की ओर इशारा कर बैठ जाने को कहने वाले कितने अधिकारी हमारे देश में होंगे? यदि शिक्षित लोग इस प्रकार का आदर्शवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करने लगें तो निःसंदेह जहाँ एक ओर समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी, वहीं वे एक नवीन परम्परा का सूत्रपात करने का गौरव भी प्राप्त करेंगे।
यथावृक्षस्य संपुप्पितस्य दूराद् गन्धो वाति।
एवं पुण्यस्य कर्मणो दूराद् गंधो वाति॥ (नारायणोप. 2199)
जैसे फूले हुए वृक्ष की सुगन्ध दूर-दूर तक फैल जाती है, उसी प्रकार शुभ कर्मों की ख्याति भी दूर-दूर तक फैल जाती है।
निः सन्देह भावावेश या क्रोध में मानव वाणी का विवेक खो बैठता है और महापुरुष भी इस दुर्बलता से अछूते नहीं रह पाते परंतु पथ-प्रदर्शक का सुयोग्य दिशा-निर्देश पाकर वह पथ भ्रष्ट हो तो यह विडम्बना ही होगी।
राज्याभिषेक का हर्ष जब वनवास के विषाद में परिवर्तित हो जाता है तब राम तो स्पष्टतः घोषणा करते हैं कि व्याहतेऽप्यभिषेके मे परितापो न विद्यते मुझे अपने अभिषेक में विघ्न पड़ जाने पर दुःख या संताप नहीं हो रहा है, परन्तु लक्ष्मण अपनी वाणी का संयम रखने में सफल नहीं हो पाते और न कहने योग्य शब्दों का भी उपयोग कर बैठते हैं-
हनिष्ये पितरं वृद्धं कैकेय्यासक्तमानसम्।
कृपर्ण च स्थितं बाल्ये वृद्धभावेन गर्हितम्॥
(वा.रा. अयो. 21/18 ) - स्वामी ओंकारानन्द
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वेद मर्मज्ञ आचार्य डॉ. संजय देव के ओजस्वी प्रवचन सुनकर लाभान्वित हों।
रोगों का मूल कारण बुद्धि का अपराध
Ved Katha Pravachan -75 (Explanation of Vedas) वेद कथा - प्रवचन एवं व्याख्यान Ved Gyan Katha Divya Pravachan & Vedas explained (Introduction to the Vedas, Explanation of Vedas & Vaidik Mantras in Hindi) by Acharya Dr. Sanjay Dev
बदलने की मनोवृत्ति आदमी में बदलने की मनोवृत्ति होती है। कोई भी एक रूप रहना नहीं चाहता है। युवक भी सदा युवक नहीं रहता, बूढा होता है। जैसे यौवन का अपना स्वाद है, वैसे ही बुढापे का अपना मजा है, स्वाद है। जिस व्यक्ति ने बुढापे का अनुभव नहीं किया, बुढापे के सुख का अनुभव नहीं किया, वह नहीं जान सकता कि...