गीता के उपदेश की सार्थकता इसी में थी कि अर्जुन युद्ध करने के लिए तैयार हो जाए। वह पूरे मनोयोग से युद्ध करने के लिए न केवल तत्पर ही हुआ, अपितु महाभारत युद्ध के विजेता का गौरव भी प्राप्त कर सका। उस समय केवल एक अर्जुन था, परन्तु आज की परिस्थिति में प्रत्येक भारतवासी को अर्जुन बनना पड़ेगा, तभी भगवान श्रीकृष्ण की आराधना एवं गीता का अध्ययन-मनन सार्थक हो सकेगा।
महाभारत काल में वैदिक ज्ञान-विज्ञान प्रायह्न लुप्त हो चुका था और तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था लड़खड़ा गई थी। इसके स्थान पर आत्मा के सच्च्े स्वरूप के विषय में तथा सामाजिक कर्तव्य के विषय में उस युग के तत्ववादियों के विभिन्न मतों का एक जंजाल ही दिखाई देने लगा था । अनेक सम्प्रदाय, मत, पन्थ तथा चिन्तनधाराएं उस काल में जन्म ले चुकी थीं, परिणामतः समाज लड़खड़ा रहा था और मतिभ्रम उत्पन्न हो गया था। जैसा कि वर्तमान में वैदिक ज्ञान के अभाव में अनेक मत, पंथ, संप्रदायों ने समाज को छिन्न-भिन्न और मृतप्राय बना रखा है। तात्पर्य यह है कि वैचारिक क्षेत्र में वर्तमान का परिदृश्य महाभारत काल के परिदृश्य से काफी मिलता-जुलता है।
इन सभी मत-वादों के कारण उस काल में समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित हो चुका था तथा अकर्मण्यता भी बढ़ती जा रही थी। उस काल की विभिन्न विचारधराओं में कुछ धाराएं उन ज्ञानमार्गियों की थीं, जो कर्म को त्याज्य व बन्धन का कारण मानते थे। आज भी हमें इस स्थिति के दर्शन होते हैं। समाज टुकड़ों में विभाजित है और समाज, संस्कृति तथा देश हित के प्रति उदासीन अकर्मण्यों की जमात बड़ी संख्या में दिखाई दे रही है।
मान लीजिए, यदि अर्जुन युद्ध से पलायन कर जाता तो क्या स्थिति बनती ? स्पष्ट है दुर्बुद्धि दुर्योधन जैसे स्वार्थी, अनाचारी और अधर्मियों की जमात बढ़ जाती और भीष्म, द्रोणाचार्य जैसे व्यक्ति उनकी हां में हां मिलाते दिखाई देते। द्रौपदियों की लाज सरेआम नीलाम होती दिखाई देती। अन्याय और हठधर्मिता का सर्वत्र साम्राज्य हो जाता। सोचिए और अपने अन्तह्नकरण में विश्लेषण कीजिए कि अर्जुन का युद्ध करना कितना उचित था?
तत्कालीन विचारधाराओं के आधार पर अर्जुन तो उस युद्ध को कठोर कर्म और पाप कर्म मानने लगा था। वह उन विचारधाराओं से इस सीमा तक प्रभावित हो चुका था कि वह स्वधर्म, क्षात्रधर्म, 'परित्राणाय साधुनां' तथा 'धर्म संस्थापनार्थाय' युद्ध कर आततायियों-अन्यायियों को मारने के अपने उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ने लगा था।
वासुदेव कृष्ण ने अर्जुन की गलत मान्यताओं को अस्वीकार करते हुए धर्म के अनुसार उसे युद्ध करने के लिए शिक्षित और दीक्षित किया। अर्जुन ने युद्ध किया और विजय प्राप्त की। अर्जुन का यह कर्म पाप कर्म या बंधन का कारण कदापि नहीं माना जा सकता। उसने तो 'युद्धाय कृत निश्चय' के आदेश का पालन किया था।
वर्तमान के संदर्भ में यदि हम विचार करें तो पाते हैं समाज की सिर्फ छिन्न-भिन्न तस्वीर। एक-दूसरे से घृणा करने वाले, धर्म की डींगे मारने वाले स्वार्थी वर्ग, जिन्होंने अपने राष्ट्रीय एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों को भुला रखा है। वे अपनी-अपनी पूजा-उपासना में लीन हैं । भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र आदि भी पूजा-उपासना करते थे। कर्ण सूर्य पूजा करता था । किन्तु सभी ने अपनी निष्ठाएं अधर्मी दुर्योधन के लिए अर्पित कर रखी थीं।
वर्तमान में देश पर छा रहे संकट के काले बादल, निर्दोष व्यक्तियों की हत्या, सामाजिक बिखराव, राजनीतिक विवशताएं, वैयक्तिक स्वार्थ, नैतिक पतन, स्वाभिमानहीनता आदि को देखते हुए यह कहना उचित प्रतीत होता है कि भारतीय समाज उस चौराहे पर पहुंच गया है, जहां मृत्यु उसे ढूंढ रही है। ऐसी स्थिति में आशा और विश्वास का यदि कोई प्रकाश स्तंभ है, तो वह है गीता।
गीता के संदेश को समझकर अपने राष्ट्रहित संबंधी, देशभक्तिपूर्ण कर्तव्य का निर्धारण करना आवश्यक है। हमारे सामने एकमात्र लक्ष्य हो देश की रक्षा, आतंकी जेहादी हत्यारों का सर्वनाश। देश किसी भी वर्ग-संप्रदाय से बड़ा होता है। हम आपसी मतभेद भुलाकर राष्ट्रधर्म को अपनाएं। उसके लिए जीवन का समर्पण करें।
इसके लिए आवश्यक है नपुंसकता को त्यागकर अर्जुन का व्रत धारण करो, गीता के अध्ययन की यही सार्थकता है। आज गीता ही हमारा संबल है। उसके मर्म को समझकर अर्जुन बनो और 'युद्धाय कृत निश्चयः'। -प्रा. जगदीश दुर्गेश जोशी
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