धर्म और मजहब पर्यायवाची शब्द नहीं हैं। स्मृतियों में देखिये। उनमे उन चीजों का नामांकन मिलेगा जो धर्म के अन्तर्भूत हैं। कुछ ऐसी बातें हैं जिनकों धर्म का लक्षण कहा गया है और सार्वभौम तथा सर्ववर्णिक धर्म कहा गया है। अर्थात् ये ऐसी बातें हैं जो सब मनुष्यों के लिए धर्म हैं। इस सूची में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, दया, क्षमा, शौच, आर्जव के नाम आते हैं।
इतिहास के आंख खोलने से लेकर आज तक अबाध गति से आगे की ओर बढता हुआ हिन्दुत्व महानदियों की भांति ही शताब्दियों से विचार और कर्म की अनगिनत धाराओं को लेकर चलता आया है। इसने विविध आध्यात्मिक और सामाजि आन्दोलनों को जन्म दिया है। इसी प्रकार हिन्दुत्व बहुसंख्य भारतीयों का धर्म रहा है।
इससे पूर्व कि हिन्दू धर्म की विशेषताओं पर कुछ लिखा जाए, यह सोचना पड़ेगा कि "धर्म" शब्द "हिन्दू" के साथ ही क्यों? धर्म का अर्थ क्या है? संसार में जो शेष मनुष्य हैं, वे स्वयं को हिन्दू क्यों नहीं मानते? इन पर धर्म शब्द फिट क्यों नहीं होता? संसार में अनेक जातियॉं और मजहब हैं, मत-मतान्तर हैं, रिलीजन्स हैं। किन्तु "धर्म" शब्द का प्रयोग केवल हिन्दू के साथ होता है। ऐसा क्यों?
कर्तव्य भाव से फल की आशा से मुक्त होकर ईश्वर को समर्पित कर कर्म करने वाला बन्धन में नहीं आता अपितु वह निर्भय होकर अभिमान, अहंकार तथा कर्तापन के बोझ से मुक्त रहकर आनन्द में रहता है। वास्तव में कर्मफल अपने अधीन है ही नहीं, अतः कर्तापन के भाव को त्याग केवल कर्म ही कर्तव्य है ऐसा समझकर जो कर्म करते हैं वो भय, तनाव से मुक्त रहते हैं। यह गीता के कर्मयोग का वैशिष्ट्य है। गीता तो आत्मतत्व तथा मानव जीवन की सफलता के लिए अपेक्षित दिव्य कर्मों का बोध कराने वाला सम्पूर्ण वेद, उपनिषदों का सारभूत आध्यात्मशास्त्र है जिसमें समत्व दृष्टि, अनाशक्ति, ईश्वर में आत्मसमर्पण, गुणातीतता और स्वधर्म सेवा का अनुपम ज्ञान समाविष्ट है।